New Delhi, 24 अगस्त . भारतीय खेल जगत में ’25 अगस्त’ बेहद खास रहा है. इसी दिन भारत ने साल 1957 और 1975 में ‘पोलो वर्ल्ड कप’ जीता था. ठीक एक ही तिथि पर, दो बार यह कारनामा दोहराकर भारत ने इस खेल में अपना दबदबा साबित किया है.
भारत के मणिपुर राज्य को आधुनिक पोलो का जन्मस्थान माना जाता है, जहां यह खेल ‘सागोल कांगजेई’ नाम से जाना जाता है. जब यहां इस खेल को ब्रिटिश अधिकारियों ने देखा, तो यह पश्चिम में भी फैला और ऐसे में आधुनिक पोलो का विकास हुआ.
पोलो एक ऐसा खेल है, जिसमें घोड़े पर बैठकर प्रतिद्वंदी टीम के खिलाफ गोल दागते हैं. इसे अमीरों वाला खेल भी कहा जाता है.
1800 के दशक से 1910 के दशक तक, भारतीय रियासतों का प्रतिनिधित्व करने वाली कई टीमों ने अंतरराष्ट्रीय पोलो परिदृश्य पर अपना दबदबा कायम रखा.
भारतीय पोलो संघ (आईपीए) की स्थापना साल 1892 में हुई थी. द्वितीय विश्व युद्ध और घुड़सवार सेना के मशीनीकरण की वजह से खेल कुछ समय के लिए रुक गया. करीब 17 साल बाद, 1956 में भारतीय पोलो चैंपियनशिप को फिर से शुरू किया गया.
भारत की पोलो टीम ने साल 1957 में फ्रांस में विश्व चैंपियनशिप में हिस्सा लेते हुए टूर्नामेंट अपने नाम किया. उस वक्त भारतीय टीम में jaipur के महाराज सवाई मान सिंह , मेजर कृष्ण सिंह और राव राजा सिंह मौजूद थे.
भारत ने इंग्लैंड, अर्जेंटीना और स्पेन जैसी टीमों को पछाड़ते हुए इस खिताब को अपने नाम किया. इसके बाद, साल 1975 में ठीक इसी दिन भारत एक बार फिर पोलो चैंपियन बना.
भारतीय सेना ने आधिकारिक तौर पर पोलो को एक खेल के रूप में अपनाया, जिससे भारत में इस खेल का महत्व बढ़ा. शाही कैटेगरी के इस खेल में आम से लेकर खास वर्ग से आने वाले खिलाड़ी ने भी देश का नाम रोशन किया.
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आरएसजी
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